Thursday, February 10, 2011

Kabir Bani

Saying of the Saint Kabir

Among the dohas of the Saint Kabir many times it happen to find the dohas composed by the Yogis of the Natha Panth,which later were changed to the name of the Saint Kabir. Such situation was created because the teachings of the Saint Kabir is very similar to the teaching of the Guru Goraksh Nath, and after his demise, his followers have included some sayings of the Natha Siddhas thinking them to be the compositions of the Saint Kabir.:

है कोइ जगत गुर ग्याँनी, उलटि बेद बूझै।

पाँणीं में अगनि जरैं, अँधरे कौ सूझै॥टेक॥

एकनि ददुरि खाये, पंच भवंगा।

गाइ नाहर खायौ, काटि काटि अंगा॥

बकरी बिधार खायौ, हरनि खायौ चीता।

कागिल गर फाँदियिा, बटेरै बाज जीता॥

मसै मँजार खायौ, स्यालि खायौ स्वाँनाँ।

आदि कौं आदेश करत, कहैं कबीर ग्याँनाँ॥160॥

Still, amongst the collections of his compositions there could found some writings which are obviously came out from the Natha Tradition, and later were included amongst his works:

source

जल थल माहें आपही आप। आपै जपहु अपना जाप॥

पांचे पंच तत्त बिस्तार। कनक कामिनि जुग ब्योहार॥

प्रेम सुधा रस पीवै कोई। जरा मरण दुख फेरि न होई॥

छटि षट चक्र चहूँ दिसि धाइ। बिनु परचै नहीं थिरा रहाइ॥

दुबिधा मेटि खिमा गहि रहहु। कर्म धर्म की सूल न सहहु॥

सातै सति करि बाचा जाणि। आतम राम लेहु परवाणि॥

छूटै संसा मिटि जाहि दुक्ख। सुन्य सरोवरि पावहु सुक्ख॥

अष्टमी अष्ट धातु की काया। तामहिं अकुल महा निधि राया॥

गुरु गम ज्ञान बतावै भेद। उलटा रहै अभंग अछेद॥

नौमी नवै द्वार कौ साधि। बहती मनसा राखहु बाँधि॥

लोभ मोह सब बीसरी जाहु। जुग जुग जीवहु अमर फल खाहु॥

दसमी दस दिसि होइ अनंदा। छूटै भर्म मिलै गोबिंदा॥



ज्योति स्वरूप तत्त अनूप। अमल न मल न छाँह नहिं धूप॥

एकादसी एक दिसि धावै। तौ जोनी संकट बहुरि न आवै॥

सीतल निर्मल भया सरीरा। दूरि बतावत पाया नीरा॥

बारसि बारहौ गवै सूर। अहि निसि बाजै अनहद तूर॥

देख्या तिहूँ लोक का पीउ। अचरज भया जीव ते सीउ॥

तेरसि तेरह अगम बखाणि। अर्द्ध अर्द्ध बिच सम पहिचाणि॥

नीच ऊँच नह मान प्रमान। ब्यापक राम सकल सामान॥

चौदसि चौदह लोक मझारि। रोम रोम महि बसहिं मुरारि॥

सत संतोष का धरहु धियान। कथनी कथियै ब्रह्म गियान॥

पून्यो पूरा चंद्र अकास। पसरहिं कला सहज परगास॥

आदि अंत मध्य होइ रह्या बीर। सुखसागर महि रमहिं कबीर॥133॥


अगम दुर्गम गढ़ रचियो बास। जामहि जोति करै परगास॥

बिजली चमकै होइ अनंद। जिह पोड़े प्रभु बाल गुबिंद॥

इहु जीउ राम नाम लव लागै। जरा मरन छूटै भ्रम भागै॥

अबरन बरन स्यों मन ही प्रीति। हौ महि गायत गावहिं गीति॥

अनहद सबद होत झनकार। जिहँ पौड़े प्रभु श्रीगोपाल॥

खंडल मंडल मंडल मंडा। त्रिय अस्थान तोनि तिय खंडा॥

अगम अगोचर रह्या अभ्यंत। पार न पावै कौ धरनीधर मंत॥

कदली पुहुप धूप परगास। रज पंकज महि लियो निवास॥

द्वादस दल अभ्यंतर मत। जहँ पौड़े श्रीकवलाकंत॥

अरध उरध मुख लागो कास। सुन्न मंडल महि करि परगांसु॥

ऊहाँ सूरज नाहीं चंद। आदि निरंजन करै अनंद॥

सो ब्रह्मंडि पिंड सो जानू। मानसरोवर करि स्नानू॥

सोहं सो जाकहुँ है जाप। जाको लिपत न होइ पुन्न अरु पाप॥

अबरन बरन धाम नहिं छाम। अबरन पाइयै गुंरु की साम॥

टारी न टरै आवै न जाइ। सुन्न सहज महि रह्या समाइ॥

मन मद्धे जाने जे कोइ। जो बोलै सो आपै होइ॥

जोति मंत्रि मनि अस्थिर करै। कहि कबीर सो प्रानी तरै॥16॥

अवधू जोगी जग थैं न्यारा; मुद्रा निरति सुरति करि सींगी, नाद न षंडै धारा॥टेक॥

बसै गगन मैं दुनीं न देखै, चेतनि चौकी बैठा।

चढ़ि अकास आसण नहीं छाड़ै, पीवै महा रस मीठा॥

परगट कंथाँ माहैं जोगी दिल मैं दरपन जीवै।

सहँस इकीस छ सै धागा, निहचल नाकै पीवै॥

ब्रह्म अगनि मैं काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै।

कहै कबीर सोई जोगेश्वर, सहज सुंनि ल्यौ लागौ॥69॥


जगत गुर अनहद कींगरी बाजे, तहाँ दीरघ नाद ल्यौ लागे॥टेक॥

त्री अस्यान अंतर मृगछाला, गगन मंडल सींगी बाजे॥

तहुँआँ एक दुकाँन रच्यो हैं, निराकार ब्रत साजे॥

गगन ही माठी सींगी करि चुंगी, कनक कलस एक पावा।

तहुँवा चबे अमृत रस नीझर, रस ही मैं रस चुवावा॥

अब तौ एक अनूपम बात भई, पवन पियाला साजा।

तीनि भवन मैं एकै जोगी, कहौ कहाँ बसै राजा॥

बिनरे जानि परणऊँ परसोतम, कहि कबीर रँगि राता।

यहु दुनिया काँई भ्रमि भुलाँनी, मैं राम रसाइन माता॥153॥

ऐसा रे अवधू की वाणी, ऊपरि कूवटा तलि भरि पाँणीं॥टेक॥

जब लग गगन जोति नहीं पलटै, अबिनासा सुँ चित नहीं विहुटै।

जब लग भँवर गुफा नहीं जानैं, तौ मेरा मन कैसै मानैं॥

जब लग त्रिकुटी संधि न जानैं, ससिहर कै घरि सूर न आनैं।

जब लग नाभि कवल नहीं सोधै, तौ हीरै हीरा कैसै बेधैं॥

सोलह कला संपूरण छाजा, अनहद कै घरि बाजैं बाजा॥

सुषमन कै घरि भया अनंदा, उलटि कबल भेटे गोब्यंदा।

मन पवन जब पर्‌या भया, क्यूँ नाले राँपी रस मइया।

कहै कबीर घटि लेहु बिचारी, औघट घाट सींचि ले क्यारी॥202॥

सो जोगी जाकै सहज भाइ, अकल प्रीति की भीख खाइ॥टेक॥

सबद अनाहद सींगी नाद, काम क्रोध विषया न बाद।

मन मुद्रा जाकै गुर को ग्यांन, त्रिकुट कोट मैं धरत ध्यान॥

मनहीं करन कौं करै सनांन, गुर को सबद ले ले धरै धियांन।

काया कासी खोजै बास, तहाँ जोति सरूप भयौ परकास॥

ग्यांन मेषली सहज भाइ, बंक नालि को रस खाइ।

जोग मूल कौ देइ बंद, कहि कबीर थीर होइ कंद॥377॥

नां सो आवै ना सो जाई, ताकै बंध पिता नहीं माई॥
चार बिचार कछु नहीं वाकै, उनमनि लागि रहौ जे ताकै॥
को है आदि कवन का कहिये, कवन रहनि वाका ह्नै रहिये॥

नाद बिंद रंक इक खेला, आपै गुरु आप ही चेला॥
आपै मंत्रा आपै मंत्रोला, आपै पूजै आप पूजेला॥
आपै गावै आप बजावै, अपनां कीया आप ही पावै॥
आपै धूप दीप आरती, आपनीं आप लगावै जाती॥

ना इहु मानुष ना इहु देव। ना इहु जती कहावै सेव॥

ना इहु जोगी ना अवधूता। ना इसु माइ न काहू पूता॥

या मंदर मह कौन बसाई। ता का अंत न कोऊ पाई॥

ना इहु गिरही ना ओदासी। ना इहु राज न भीख मँगासी॥

ना इहु पिंड न रकतू राती। ना इहु ब्रह्मन ना इहु खाती॥

ना इहु तया कहावै सेख। ना इहु जीवै न मरता देख॥

इसु मरते को जे कोऊ रोवै। जो रोवै सोई पति खोवै॥

गुरु प्रसादि मैं डगरो पाया। जीवन मरन दोऊ मिटवाया॥

कहु कबीर इहु राम की अंसु। उस कागद पर मिटै न मंसु॥125॥

सुरति सिमृति दुई कन्नी मंदा परमिति बाहर खिंथा॥

सुन्न गुफा महि आसण बैसण कल्प विवर्जित पंथा॥

मेरे राजन मैं बैरागी जोगी मरत न साग बिजोरी॥

खंड ब्रह्मांड महि सिंडी मेरा बटुवा सब जग भसमाधारी।

ताड़ी लागी त्रिपल पलटिये छूटै होइ पसारी॥

मन पवन्न दुई तूंबा करिहै जुग जुग सारद साजी॥

थिरु भई नंती टूटसि नाहीं अनहद किंगुरी बाजी॥

सुनि मन मगन भये है पूरे माया डोलत लागी॥

कहु कबीर ताकौ पुनरपि जनम नहीं खेलि गयो बैरागी॥210॥

जांनसि नहीं कस कथसि अयांनां, हम निरगुन तुम्ह सरगुन जानां॥
मति करि हीन कवन गुन आंहीं, लालचि लागि आसिरै रहाई॥
गुंन अरु ग्यान दोऊ हम हीनां, जैसी कुछ बुधि बिचार तस कीन्हां॥
हम मसकीन कछु जुगति न आवै, ते तुम्ह दरवौ तौ पूरि जन पावै॥
तुम्हरे चरन कवल मन राता, गुन निरगुन के तुम्ह निज दाता॥
जहुवां प्रगटि बजावहु जैसा, जस अनभै कथिया तिनि तैसा॥
बाजै जंत्रा नाद धुनि होई, जे बजावै सो औरै कोई॥
बांजी नाचै कौतिग देखा, जो नचावै सो किनहूँ न पेखा॥

अलख निरंजन लखै न कोई, निरभै निराकार है सोई॥
सुनि असथूल रूप नहीं रेखा, द्रिष्टि अद्रिष्टि छिप्यौ नहीं पेखा॥
बरन अबरन कथ्यौ नहीं जाई, सकल अतीत घट रह्यौ समाई॥
आदि अंत ताहि नहीं मधे, कथ्यौ न जाई आहि अकथे॥
अपरंपार उपजै नहीं बिनसै, जुगति न जांनिये कथिये कैसे॥

3. राग आसावरी

ऐसा रे अवधू की वाणी, ऊपरि कूवटा तलि भरि पाँणीं॥टेक॥
जब लग गगन जोति नहीं पलटै, अबिनासा सुँ चित नहीं विहुटै।
जब लग भँवर गुफा नहीं जानैं, तौ मेरा मन कैसै मानैं॥
जब लग त्रिकुटी संधि न जानैं, ससिहर कै घरि सूर न आनैं।
जब लग नाभि कवल नहीं सोधै, तौ हीरै हीरा कैसै बेधैं॥
सोलह कला संपूरण छाजा, अनहद कै घरि बाजैं बाजा॥
सुषमन कै घरि भया अनंदा, उलटि कबल भेटे गोब्यंदा।
मन पवन जब पर्‌या भया, क्यूँ नाले राँपी रस मइया।
कहै कबीर घटि लेहु बिचारी, औघट घाट सींचि ले क्यारी॥202॥
मन का भ्रम मन ही थैं भागा, सहज रूप हरि खेलण लागा॥टेक॥
मैं तैं तैं ए द्वै नाहीं, आपै अकल सकल घट माँहीं।
जब थैं इनमन उनमन जाँनाँ, तब रूप न रेष तहाँ ले बाँनाँ॥
तन मन मन तन एक समाँनाँ, इन अनभै माहै मनमाँना॥
आतमलीन अषंडित रामाँ, कहै कबीर हरि माँहि समाँनाँ॥203॥

आत्माँ अनंदी जोगी, पीवै महारस अंमृत भोगी॥टेक॥
ब्रह्म अगनि काया परजारी, अजपा जाप जनमनी तारी॥
त्रिकुट कोट मैं आसण माँड़ै, सहज समाधि विषै सब छाँड़ै॥
त्रिवेणी बिभूति करै मन मंजन, जन कबीर प्रभु अलष निरंजन॥204॥

या जोगिया को जुगति जु बूझै, राम रमै ताकौ त्रिभुवन सूझै॥टेक॥
प्रकट कंथा गुप्त अधारी, तामैं मूरति जीवनि प्यारी।
है प्रभू नेरै खोजै दूरि, ज्ञाँन गुफा में सींगी पूरि॥
अमर बेलि जो छिन छिन पीवै, कहै कबीर सो जुगि जुगि जीवै॥205॥

सो जोगी जाकै मन मैं मुद्रा, रात दिवस न करई निद्रा॥टेक॥
मन मैं आँसण मन मैं रहणाँ, मन का जप तप मन सूँ कहणाँ॥
मन मैं षपरा मन मैं सींगी, अनहद बेन बजावै रंगी।
पंच परजारि भसम करि भूका, कहै कबीर सौ लहसै लंका॥206॥

बाबा जोगी एक अकेला, जाके तीर्थ ब्रत न मेला॥टेक॥
झोलीपुत्र बिभूति न बटवा, अनहद बेन बजावै॥
माँगि न खाइ न भूखा सोवै, घर अँगना फिरि आवै॥
पाँच जना का जमाति चलावै, तास गुरु मैं चेला॥
कहै कबीर उनि देस सिधाय, बहुरि न इहि जगि मेला॥207॥

जोगिया तन कौ जंत्रा बजाइ, ज्यूँ तेरा आवागमन मिटाइ॥टेक॥
तत करि ताँति धर्म करि डाँड़ि, सत की सारि लगाइ।
मन करि निहचल आसँण निहचल, रसनाँ रस उपजाइ॥
चित करि बटवा तुचा मेषली, भसमै भसम चढ़ाइ।
तजि पाषंड पाँच करि निग्रह, खोजि परम पद राइ॥
हिरदै सींगी ग्याँन गुणि बाँधौ, खोजि निरंजन साँचा।
कहै कबीर निरंजन की गति, जुगति बिनाँ प्यंड काचा॥208॥

अवधू ऐसा ज्ञाँन बिचारी, ज्यूँ बहुरि न ह्नै संसारी॥टेक॥
च्यँत न सोच चित बिन चितवैं, बिन मनसा मन होई।
अजपा जपत सुंनि अभिअंतरि, यहू तत जानैं सोई॥
कहै कबीर स्वाद जब पाया, बंक नालि रस खाया।
अमृत झरै ब्रह्म परकासैं तब ही मिलै राम राया॥209॥

गोब्यंदे तुम्हारै बन कंदलि, मेरो मन अहेरा खेलै।
बपु बाड़ी अनगु मृग, रचिहीं रचि मेलैं॥टेक॥
चित तरउवा पवन षेदा, सहज मूल बाँधा।
ध्याँन धनक जोग करम, ग्याँन बाँन साँधा॥
षट चक्र कँवल बेधा, जारि उजारा कीन्हाँ।
काम क्रोध लोभ मोह, हाकि स्यावज दीन्हाँ॥
गगन मंडल रोकि बारा, तहाँ दिवस न राती।
कहै कबीर छाँड़ि चले, बिछुरे सब साथी॥210॥

साधन कंचू हरि न उतारै, अनभै ह्नै तौ अर्थ बिचारै॥टेक॥
बाँणी सुंरग सोधि करि आणै आणौं नौ रँग धागा।
चंद सूर एकंतरि कीया, सीवत बहु दिन लागा।
पंच पदार्थ छोड़ि समाँनाँ, हीरै मोती जड़िया।
कोटि बरष लूँ क्यूँ सीयाँ, सुर नर धधैं पड़या॥
निस बासुर जे सोबै नाहीं, ता नरि काल न खाई।
कहै कबीर गुर परसादैं सहजै रह्या समाई॥211॥

परब्रह्म देख्या हो तत बाड़ी फूली, फल लागा बडहूली।
सदा सदाफल दाख बिजौरा कौतिकहारी भूली॥टेक॥
द्वादस कूँवा एक बनमाली, उलट नीर चलावै।
सहजि सुषमनाँ कूल भरावै, दह दिसि बाड़ी पावै॥
ल्यौकी लेज पवन का ढींकू, मन मटका ज बनाया।
सत की पाटि सुरति का चठा, सहजि नीर मुलकाया॥
त्रिकुटी चढ़îौ पाव ढौ ढारै, अरध उरध की क्यारी।
चंद सूर दोऊ पाँणति करिहै, गुर सुषि बीज बिचारी॥
भरी छाबड़ा मन बैकुंठा, साँई सूर हिया रगा।
कहै कबीर सुनहु रे संतो, हरि हँम एकै संगा॥214॥

राजा राम बिना तकती धो धो।
राम बिना नर क्यूँ छूटौगे, जम करै नग धो धो धो॥टेक॥
मुद्रा पहर्या जोग न होई, घूँघट काढ़ा सती न कोई।
मा कै सँगि हिलि मिलि आया, फौकट सटै जनम गँवाया।
कहै कबीर जिनि हरि पद चीन्हाँ, मलिन प्यंड थैं निरमल कीन्हा॥217॥